बानी-ए-यतीमख़ाना इस्लामिया गया का वह ख़्वाब जो हक़ीक़त बनने का मुंतज़िर था।
उलूल अजमाने दानिशमंद जब करने पे आते हैं
समुदंर पाटते है, कोह से दरिया बहाते है
आज से 100 साल कबल जबकि जहालत का घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था और लोगों का इलमी शऊर इतना मुर्दा था और जहालत इस क़दर बढ़ी हुई थी कि इतनी बड़ी वसीअ व अरीज गयारह (11) मील (18 किलोमीटर) की इंसानी आबादी में लोग स्कूल व मदरसा को बेमानी चीजें ख्याल क्यिा करते थे ऐसे तारीक दौर में भी बानी-ए-"यतीमखाना इस्लामिया" गया लड़कियों की तालीम-ओ-तरबियत के लिए मुसलसल फिक्रमंद और बेचैन रहा करते थे कि लड़कियो में तालीम का सिलसिला कैसे जारी हो" 1938 ई0 "यतीमखाना इस्लामिया गया" की मुसीबतों का दौर था क़दम क़दम पर अपने और ग़ैरो
ने रूकावटें खड़ी कर रखी थीं। मज़ाहमतें हो रही थीं। अदारह चलाना दुश्वार हो रहा था। इसके बावजूद वह मुतफक्किर थे कि "लड़कियों की तालीम" का मसला कैसे हल हो। उन का अज़्म अल्लामा इकबाल के इस शैर के मानिंद था।
हम अपने लहू से सींचेंगे
काँटो को, गुलाें को, गुलशन को
याद रखें वफात से चन्द साल क़बल, शदीद बुढापा और बिस्तर पर साहबे फ़राश रहने के बावजूद उन का अज़्म बिलकुल जवान रहा। ऐसी हालत में भी,,लड़कियों का यतीमखाना खोलने का एलान किया और अपनी एक बीघा (तकरीबन75डिसिमिल), ज़मीन भी वक़्फ कर दी थी मगर कोई खुदा का बन्दा इस काम को करने के लिए तैयार ना हुआ। बिल आखिर 30 सितमबर 1970 ई0 को पचासी (85) साल की उम्र में अपने सीने में "लड़कियों का यतीमख़ाना" की आरज़ू लिए हुऐ और यह दुआ करते हुए।
या इलाही ता क़यामत यह चमन ताज़ा रहे
हर शजर, हर नख्ल इस का फूलता फलता रहे।
अपने मुहसिने हक़ीक़ी से जा मिले। इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजी ऊन। और अब,,, "मस्जिदे यतीमखाना इस्लामिया गया" के जे़रे साया मस्जिद के सदर दरवाजे से उत्तर जानिब मदफून हैं। बानी-ए-अदारह का ख़त उन के अज़ाएम और हौसले का आइना दार है और उन के दिल ओ दिमाग़ की पूरी तरह अक्कासी कर रहा हैं कि लड़कियों की तालीम के लिए कब से और कितने फिक्रमंद थे। मौसूफ अपने ख़त बनाम अराकीन "यतीमख़ाना इस्लामिया गया" में लड़कियो के यतीमख़ाना से मुताल्लिक़ लिखते हैं।
"आइंदा जनवरी 1939 ई0 से यतीमखाना मज़कूर में यतीम बच्चियों के लिए एक सेग़ा खोला जाए और उन की तालीम व तरबियत के लिए एक मुअल्लिमा मुर्क़र्रर की जाए और उसके लिए मोजूँ जगह कोलौना है"।
(माख़ूज ख़त 3 अक्तूबर 1938 ई0 इनायत खाँ बानी-ए-यतीमखाना इस्लामिया गया)
नोट:- यही ख़त था जो बानी-ए-यतीमख़ाना इस्लामिया गया के पोते जनाब इकबाल अहमद खाँ को महरक बना था। उन का अज़्म भी अल्लामा इकबाल के इस शैर के मानिन्द था।
सियाह रात की तारीकियों के रखवालो
तूलूअ ए महरे जहाँ ताब कौन रोके गा।
(लड़कियाें के लिए जदीद और मुकम्मल इस्लामी तर्ज-ए-तालीम से मुजय्यन क़ौमी सतह का
मेयारी रहाइशी(Residential) तालीमी व तरबियती अदारह)
क़ाफ़ला पहुँचेगा अपनी मंजिले मक़सूद
शर्त बस ये है कि वह छोड़े न राहे एतेदाल
खुदा के फ़ज़लो करम से हालात ने बहुत जल्द पलटा खाया और लोगों का तआवुन बढ़ता हुआ नज़र आया तो यतीम तालिबात की तादाद बढ़ा कर तीन (3) से सात (7) और सात (7) से नौ (9) कर दी गई और जनवरी 2010 ई0 से (120) यतीम तालिबात तालीम व तरबियत पा रही हैं जिन का सारा ख़र्च अदारह के जिम्मा है मसलन साल में तीन जोडे कपड़े मय दुपट्टा, बिस्तर,चादर, स्वेटर, मच्छरदानी, जाड़े में ओढ़ने का सामान, चूड़ी,चप्पल, तेल साबुन,किताब , कॅापी क़लम स्लेट, पेन्सिल रोशनाई, वगैरह,गर्ज़ छोटी से बड़ी हर च़ीज दी जाती है। जिस तरह एक बाप अपनी बेटी का सामान मुहय्या किया करता है, उसी तरह बल्कि उस से बढ़ कर बर वक़्त सारी च़ीजें मुहैय्या कराने की कोशिश की जाती है ताकि यतीमी का एहसास ना हो और बस ये हमारी दुआ है कि
फला फुला रहे या रब चमन मेरी उम्मीदों का
जिगर का खून देदे के ये बूटे हम ने पाले हैं।
फिर आँधियों की ज़द पे अंधेरों के दरमियान
सुनते हैं एक चिराग जला देखते चलें
जनाब इनायत खाँ बानी-ए-यतीमखाना इस्लामिया गया जिस तालीम गाह का ख़्वाब हमेशा देखा करते थे और जिस तालीम के लिए लोगाें से टकराया और लोगों को उकसाया करते थे यतीम ख़ाना की शक़्ल में मौसूफ़ ने तो तालीम गाह की ताबीर बनाई और बनाई ही नहीं बल्कि खुद लोगाें की शदीद मुख़ालफतो में घिरे रहने के बावजूद अक्तूबर 1917 ई0 में आठ आना माहवार किराया की एक कोठरी में एक उस्ताद और दो यतीम बच्चों से यतीमखाना की बुनियाद डाल कर दिखा दिया जहाँ 65 साल क़बल तक हिन्दू क़ौम के बच्चे भी तालीम पाया करते थे। जबकि हिन्दुओं और मुस्लमानों ने मिल कर अदारह को ख़त्म करने के लिए कोई दक़ीक़ा उठा नही रखा था जिस की पूरी दास्ताने जद्दो जहद अदारह के रिकार्ड में महफूज़ है। लेकिन ये काम क़ौम के लोगाें ने नहीं किया बल्कि खुद एक ज़ाते वाहिद,जनाब इनायत खाँ रह0,,, ने अंजाम दिया जो खुद अपनी ज़ात में एक अंजुमन थे। ये पहला ख्वाब यानी यतीम और गैर यतीम लड़को की बाजा़ब्ता तालीम गाह के क़याम का पूरा हो गया। मगर बानी-ए-यतीमखाना इस्लामिया गया के लिए 1938 ई0 से 1970 ई0 तक "लड़कियों का यातीमखाना" एक दूसरा ख्वाब शर्मिदां ए ताबीर था जो निहायत खुशगवार व शीरीं था, लेकिन फिर भी ख्वाब था जो इनायत खाँ की कोशिशों के बावजूद उन की ज़िन्दगी में कभी पूरा न हो सका।
गो मंज़िल है दुशवार बहुत, गो रस्ते हैं, पुरखार बहुत
हो जौ़क़-ए-चमनकारी दिल में,तो फूलां के अंबार बहुत
क़दम चूम लेती है खुद बढ़ के मंजिल - मुसाफ़िर अगर अपनी हिम्मत न हारे
इनायत खाँ के अज़ीम ख़्वाब को उन के पोते जनाब इकबाल अहमद खाँ ने हक़ीक़त में बदल दिया। वह लिखते है कि बानी ए यतीमखाना इस्लामिया गया" का ख़त और तारीख़ हमारी आँखो के सामने थी कि छोटा आदमी बड़ा काम किस तरह कर जाता है।
वही रोशनी हमारे लिए मशाले राह बनी। इस से हम में काम करने का हौसला पैदा हुआ और अज़्म मुसम्मम मिला। ,, खुदा का नाम लेकर बानी-ए-यतीमखाना की वफ़ात के पंद्रह 15 साल बाद उन की ख़्वाहिश व ख़्याल के मुताबिक़ 21 दिसम्बर 1986 ई 0 को उन के आबाई गाँव, कोलौना में जो एक पुर फ़िज़ा मुक़ाम पर पहाड़ी के दामन में वाकेअ़ है, (3) अदारह की बुनियाद एक उस्ताद मो० गुलाम मुस्तफा खान साहब, मौज निरखा ड़ाकखाना बिशुनपुरा, जिला गया, माहाना तनखवाह एक सौ
रूपये (Rs.100) और एक मुअलिल्मा सालेहा बेगम साहिबा मौज़ा कोलौना, डाकखाना चेरकी जिला गया (ए़जाज़ी तौर पर) और तीन (3) यतीम बच्चियाें से जिन के नाम (1) रूखसाना बेगम बिन्त हाफिज अब्बास साहब मरहूम, मौजा पूनौल डाकखाना
चेरकी, जिला गया (2) अफसाना खातून बिन्त इशतेयाक अहमद खान साहब मरहूम, मौजा नीमा,डाकखाना चेरकी, जिला गया (3) प्र्वीन खानम बिन्त आले हूसैन साहब मरहूम मौजा टीका डाकखाना टूसा जिला गया से एक किराये के खपरैल मकान में "लड़कियों का यतीम ख़ाना की बुनियाद डाली थी, जो कभी साँप बिच्छु, जानवर और चिड़ियों का बसेरा था।
बक़ौल अल्लामा इक़बाल: "इश्क़ ने आबाद कर डाले हैं, दशतो कोहसार,, खुदा के फ़ज़ल-ओ-करम से अदारह ने किराया का मकान खरीद लिया है और तामीरी सिलसिला भी जारी है। लेकिन अदारह को वुस्अत देने के लिए मजीद ज़मीन व मकान खरीदने का मनसूबा है। यतीमख़ाना की सूरत में बानी-ए- यतीमख़ाना इस्लामिया गया का लड़कियों की तालीम गाह का ये दूसरा ख़्वाब हक़ीक़त बन गया।